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वि रक्षो॒ वि मृधो॑ जहि॒ वि वृ॒त्रस्य॒ हनू॑ रुज । वि म॒न्युमि॑न्द्र वृत्रहन्न॒मित्र॑स्याभि॒दास॑तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi rakṣo vi mṛdho jahi vi vṛtrasya hanū ruja | vi manyum indra vṛtrahann amitrasyābhidāsataḥ ||

पद पाठ

वि । रक्षः॑ । वि । मृधः॑ । ज॒हि॒ । वि । वृ॒त्रस्य॑ । हनू॒ इति॑ । रु॒ज॒ । वि । म॒न्युम् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒मित्र॑स्य । अ॒भि॒ऽदास॑तः ॥ १०.१५२.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:152» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् या राजन् ! (रक्षः-वि जहि) जिससे रक्षा करनी चाहिये, ऐसे दुष्ट को विनष्ट कर (मृधः-वि) संग्रामकर्ताओं को नष्ट कर (वृत्रस्य) आक्रमणकारी के (हनू) मुख के ऊपर नीचे के दोनों अङ्गों को (रुज) पीड़ित कर, भग्न कर (वृत्रहन्) हे आक्रमणकारी के हनन करनेवाले ! (अभिदासतः) सामने मारनेवाले (अमित्रस्य) शत्रु के (मन्युम्) क्रोध को (वि) विनष्ट कर ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा या राजा संग्रामकर्ताओं का विनाशक, आक्रमणकारी शत्रु के मुख के ऊपर नीचे दोनों अङ्गों को भग्न करनेवाला, आक्रमणकारी का हननकर्ता सामने आकर नाशकारी शत्रु के क्रोध को विलीन करनेवाला होता है ॥३॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) परमात्मन् राजन् ! वा (रक्षः-वि जहि) रक्षितव्यं यस्मात् तं दुष्टं विनाशय (मृधः-वि) संग्रामकर्तॄन् विनाशय (वृत्रस्य हनू रुज) आक्रमणकारिणः हनू-मुखस्याङ्गविशेषो पीडय (वृत्रहन्) आक्रमणकारिणो हन्तः ! ( अभिदासतः-अमित्रस्य मन्युं वि) सम्मुखं नाशयतः शत्रोः क्रोधं विगमय ॥३॥